Wednesday, April 24, 2013


तेरी ऑंखें क्यूँ खुद-ब-खुद बरसने लगती  हैं 

--------------खुदगर्ज़ नदीम

तेरी ऑंखें क्यूँ खुद-ब-खुद बरसने लगती हैं
खतावार वो हैं सज़ा खुद को देने लगती हैं,

दिल-ए-नाशाद बारहा क्यूँ उन्हें याद करती हैं
ज़िक्र-ए-यार के नाम से ही जो बेज़ार लगती हैं
(दिल-ए-नाशाद-dishearten soul, बेज़ार-uninterested)


वादे वफा से जो ना इत्तेफाक रखती हैं
ऐसे सनम से दिल क्यूँ तवक्को-कुछ खास रखती है
(तवक्को- expectations)

है “खुदगर्ज़” तुझको भी खबर उसके ना आने की

फिर भी  क्यूँ तेरी नजर उसके इंतज़ार में लगती हैं ..

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