शाम की सुनहरी डलती धुप में, बर्हमपुत्र नदी के किनारे बेठा,अपनी धुन में खोया था, कि एक शोर ने मेरे ख्यालों को जैसे बंग कर दिया, "दादा, मुकु लोई जुआ (मुझे भी ले जाओ), एक औरत हांफते हुए कश्ती वाले को कह रही थी, मगर कश्ती वाला ना जाने किस जल्दी में था, रुका नहीं..औरत बढबढाते हुए वहीँ किनारे पर बेठ गई.. मैं रेत पर लेटे-लेटे फिर से ख्यालों में ढूब गया, मगर अबकी बार मेरे कानो में सचिन देव बर्मन जी का गाना गूंज रहा था "वहाँ कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहाँ, दम लेले घडी भर ये छ्येयाँ पाएगा कहाँ... वहाँ कौन है तेरा...
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